जहां जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं सच्चे मित्र के रूप में ईश्वर मौजूद है। रोटी कपड़ा और मकान जैसी मूल समस्यायें हल करने के उपरांत भी प्रत्येक व्यक्ति की चाहत घटने की बजाय और बढ़ जाती है, उसका अधूरापन तभी दूर हो पाता है, जब तक तुम और मैं मिलकर हम में नहीं बदल जाते। वस्तुतः मैत्री की यही प्रक्रिया अंतिम साँस तक चलती है। कथाकार प्रेमचंद अपने एक पात्र के माध्यम से कहते हैं कि जहाँ जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहाँ ईश्वर है। इस जीवन को सफल बनाना ही परमेश्वर की सच्ची पूजा है। दुशासन द्वारा अपमानित द्रोपदी निरुपाय होने पर भगवान् कृष्ण को गोपी बल्लभ के नाते सखाभाव से पुकारती है। भक्त सुदामा अर्जुन आदि भी अपने आराध्य की आराधना मित्र भाव से ही करते हैं। प्रेमचंद अपने उक्त पात्र द्वारा यह भी कहलवाते है -” होठों पर मुस्कुराहट न आवे, आंखों में आंसू न आवे। मैं कहता हूँ अगर तुम हंस नहीं सकते, रो नहीं सकते, यदि किसी को मितवा नहीं बना सकते तो पत्थर हो मनुष्य तो बिल्कुल नहीं।
“पानी परात को हाथ छुओ नहीं.! नैनन के जल सौ पग धोये..!!”